विश्व बाल श्रम आलेख – कैसे बदलेगा बच्चों का भविष्य
जुन्नारदेव, (दुर्गेश डेहरिया)। देश भर में गरीबी की जंजीरों में जकडे लोग भुखमरी और बेरोज़गारी की तरफ ढकेले जाते है। दिन व दिन आंकड़े बढ़ते है। गरीब परिवारों को दो वक्त की रोटी मिले। इसलिए मां बाप दिहाड़ी मजदूर बनकर बच्चों का पेट भरते उम्र के पड़ाव में जब वृद्धावस्था में कोई काम नहीं बनता तो बच्चों को सिरपर जिम्मेदारी का बोझ आ जाता है। किसी हादसे पर बच्चे के ऊपर अभिभावक हाथ हट जाएं तो पढ़ाई छोड़कर दैनिक कामकाज के लिए सड़क पर मारे मारे फिरते आज के भविष्य को देखा जा सकता है। नन्ही सी आंखों में सपने लिए कुछ पैसा कमाने की ललक में बच्चों का जीवन व्यतीत हो जाता है।
कोमल हाथ कठिन श्रम करने विवश
कुछ अनाथ तो कुछ अनचाहे जन्मे बच्चे वक्त के मारे होटल और ढाबे में छोटू बनकर और बीयर बार और अन्य ठिकानों मे पिद्दा की छाप माथे पर लेकर जीवन के संघर्ष करते हैं।
कुछ तो मजबुरियां होगी
वैवाहिक जीवन में जब उतार चढ़ाव आता है। तो सात जन्मों के रिश्तों में दूरियां बढ़ जाती है ना चाहते हुए भी संतान को सड़क पर छोड़ कर अपनी जिम्मेदारी से भाग जानें वाले माता पिता अपने कलेजे के टुकड़े को लोकलाज के डर से मुंह मोड़ लेते है। सरिता (बदला हुआ नाम) जब 05 साल की थी तो उसके मां-बाप की मृत्यु हो गई जैसे तैसे नाना नानी के पास पली-बढ़ी लेकिन उनकी भी उम्र हो गई। वक्त के साथ सितम देखिए नाना नानी का भी साया चला गया।
इधर उधर मोहल्ले में बर्तन मांज कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो कर ही लिया छुपने के लिए साहब ने तरस खाते हुए एक कमरा दिया जहां धीरे-धीरे उम्र के उस पड़ा में पहुंची जब लोग अपना जीवन साथी चुनते हैं और एक मजदूर से शादी कर ली लेकिन जो सपने शादी के बाद उसने देखे थे इसके विपरीत ही कुछ दृश्य धीरे धीरे सामने आए अक्सर पति शराब के नशे में आता और मारपीट करता पत्नी द्वारा कमाए गए रुपए छीन लेता यह घटनाक्रम अधिक बढ़ा दो उसने पति से भी रिश्ता तोड़ कर दूसरे शहर में जा बसी अब दो बच्चों का साथ लेकर ईट भट्टे मैं काम करके अपना जीवन जी रही है आखिर कब इन लोगों को सुखमय जीवन मिलेगा बताना मुश्किल है रोज सुर्योदय में उठकर काम में जुटना और रात्रि विश्राम कर दो पल बच्चों को मुस्कुराते देख दिनभर की थकान दूर हो जाती फिर नये कल की तलाश करने में उम्र व्यतीत हो रही है।